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200 साल पहले ब्रिटिश नागरिक ने खोजा यह इलाका,पढ़िए पूरी खबर!

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Feb 17, 2018

दुनिया को शांति का संदेश देने वाले बौद्ध धर्म के आस्था के प्रतीक सांची के स्तूपों की खोज को आज 200 वर्ष पूरे हो गए हैं। यूं तो ये स्तूप सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में अपनी पत्नी देवी के कहने पर बनवाए थे, लेकिन कालांतर में खंडहर हो जाने के बाद ये मलबे में तब्दील हो गए। 

वर्ष 1818 में इनकी फिर से खोज हुई और बाद के वर्षों में खासकर भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन आने और 1989 में विश्व धरोहर में शामिल होने के बाद यहां की सूरत ही बदल गई। अब ये स्तूप विश्व के पर्यटन स्थल पर दुनिया भर के पर्यटकों को लुभा रहे हैं।
  
भले ही सांची रायसेन जिले का हिस्सा हो, लेकिन सम्राट अशोक के समय यह विदिशा का ही एक भाग था। जब अशोक की पत्नी देवी ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था तो उन्होंने सम्राट से कहकर यहां स्तूप बनवाए थे। उस समय स्तूपों की इस पहाड़ी का नाम वैदिसगिरी था, अर्थात विदिशा की पहाड़ी। यहां बने बौद्ध विहारों में ही देवी, महेन्द्र और संघमित्रा रहे। बाद में स्तूपों की इस पहाड़ी का नाम काकनाय और श्रीपर्वत भी रहा। लेकिन 11-12 वीं शताब्दी में यह स्थान खंडहर में तब्दील हो गया।

​ब्रिटिश काल में 1818 में भोपाल रियासत के पॉलीटिकल एजेंट जनरल टेलर ने सबसे पहले देखा। इसके बाद सर्वेयर जनरल कनिंघम ने 1853 में स्तूपों और आसपास के अवशेषों का सर्वे किया। उन्होंने अपनी पुस्तक भेलसा टोप्स को सांची के स्तूपों पर केन्द्रित कर उसमें मुरेल खुर्द, सुनारी, सतधारा और अंधेर के स्तूपों का भी सर्वे कर उसका विवरण दिया। कनिंघम ने सांची पहाड़ी पर मलबे का उत्खनन कराया और स्तूपों को उजागर किया। उन्हें यहां स्तूप क्रमांक 3 में भगवान बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र और महामोग्दलायन तथा स्तूप क्रमांक 2 में बौद्ध शिक्षकों की अस्थियां मिलीं, जिन्हें उन्होंने इंग्लैंड पहुंचा दिया।

मार्शल का योगदान अहम, इंग्लैंड से वापस आईं अस्थियां
कनिंघम के बाद स्तूपों को व्यवस्थित करने के लिए भोपाल नवाब ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल सर जॉन मार्शल से अनुरोध किया। नवाब ने मार्शल को वहां रहने के लिए बंगला भी बनवाया, जो अब भी संग्रहालय परिसर में मार्शल हाउस के नाम से मौजूद है। मार्शल ने 1912-1918 तक स्तूपों को संवारने में बहुत काम किया।

उन्होंने स्तूपों का उत्खनन कराकर उनको संरक्षित कराया। मार्शल के बाद 1942 में भोपाल रियासत के पुरातत्ववेत्ता अब्दुल हमीद ने बौद्ध विहार का उत्खनन कराया और यह प्रमाणित किया कि सम्राट अशोक की पत्नी देवी यहीं रहा करती थीं। सांची की ख्याति श्रीलंका तक पहुंची और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु और महाबोधि सोसायटी श्रीलंका ने इंग्लैंड से अनुरोध किया कि सांची से वहां ले जाई गईं सारिपुत्र और महामोग्दलायन की अस्थियां वापस की जाएं, 1952 में ये अस्थियां सांची वापस आईं और भारत तथा श्रीलंका के सहयोग से बने मंदिर में इन्हें रखा गया। इन अस्थियों को हर साल पूजा और दर्शन के लिए नवम्बर माह में निकाला जाता है।

अभिलेखों में विदिशा का जिक्र
डॉ. व्यास के अनुसार सांची के स्तूपों के गेट पर विदिशा के हाथी दांत के कारीगरों ने नक्काशी की थी, जिसका जिक्र अभिलेखों में मौजूद है। विदिशा सहित भारत के कई दानदाताओं ने भी इसमें योगदान दिया था। स्तूपों के तोरणद्वार पर जातक कथाएं उत्कीर्ण हैं। यहां हीनयान और महायान कलाओं के दर्शन होते हैं। हीनयान में प्रतीक पूजा और महायान में मूर्तिपूजा को महत्व दिया जाता था।

अब खूबसूरत है स्तूपों का नजारा
अब एएसआई के अधीन ये स्तूप विश्व भर में ख्यात बने हुए हैं। हर साल बड़ी संख्या में देशी और विदेशी पर्यटक यहां आते हैं। स्तूपों को संवारा गया है, आसपास के पूरे परिसर को हरी दूब और क्यारियों से सजाया गया है। पर्यटकों के लिए अच्छी बैठक व्यवस्था, पेड़ों की छांव, पर्यटकों को लुभाने और मनोरंजन के लिए खरगोश, बतखें और कबूतरों को भी यहां पाला गया है। वार्षिक मेले में विदेशों से बड़ी संख्या में दर्शनार्थी यहां आते हैं और सारिपुत्र तथा महामोग्दलायन के अस्थि कलशों के दर्शन करते हैं।