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मालगुजारी की जमीन के मालिकाना हक के लिए अब भी भटक रहे जिले के कोटवार, ऐसे में कौन सुनेगा कोटवारो का दर्द ?

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Mar 6, 2019

देश व प्रदेश में ब्रिटिश काल से ही कोतवारो की प्रथा चली आ रहे हैं। पहले जमाने में जमीदारी और मालगुजारी के शासन चलता था जिसमें गांव में व्यवस्था थी कि गांव के कोतवार, लोहार व धोबियों को जीवन निर्वाह के लिए जमीदारों और मालगुजारों के द्वारा जमीन दिया जाता था जिस पर खेती-बाड़ी कर अपना भरण-पोषण करते थे। यह काम धोबी, कोतवार, नाइ और यादव पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं और उन खेतों पर खेती करते भी आ रहे हैं। लंबे समय तक पीढ़ी दर पीढ़ी खेती करने से यादव ,नाइ ,धोबी और लोहार को उस जमीन का मालिकाना हक मिल गया। वहीं कोतवारो को अब भी उस जमीन के मालिकाना हक के लिए लड़ाई लड़ना पड़ रहा है।

दरअसल कोट वालों को 1928 में मालगुजारी शासन के तहत जीवन निर्वाह के लिए जमीन दिया गया था ,जिसमें कोटवार पीढ़ी दर पीढ़ी काम करते आ रहे है और उसी समय से जमीन की मालिकाना हक के लिए लड़ाई लड़ते आ रहे है । जिसमे मालिकाना कह के लिए छत्तीसगढ़ कोटवार संघ के द्वारा सन 2003 में हाई कोर्ट में याचिका दायर किया गया था जिसमें उसकी मालिकाना हक के लिए फैसला आया ।इस फैसले के खिलाफ 2014 में शासन के द्वारा स्टे ला लिया  गया । जिसपर कोटवारों ने फिर से याचिका लगाया तो 2018 में कोटवारों के पक्ष में फैसला आया।

मगर शासन स्तर पर अब तक आदेश का पालन नही किया जा रहा है ।वही कोटवारो को जमीन का हवाला देकर शासन की योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है ,ऐसे में कोटवार शासन की जनकल्याणकारी योजना से वंचित रहते है ,साथ घर मे आपात स्थिति में जमीन को बेचा भी नही जा सकता ऐसे में कोटवारों आर्थिक तंगी के चलते अपने बच्चों को उच्च शिक्षा नही दे पाते है । बता दे की बेमेतरा जिला में 800 से ज्यादा कोटवार है जिसमे से ज्यादातर कोटवारों को जमीदारी और मालगुजार शासन से मिला जमीन है । ऐसे में जमीन की मालिकाना हक नही मिलने और शासन की योजना से वंचित रहने और बहुत अल्प मानदेय में काम करने से कोटवारों को हर तरह से आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ रहा है । ऐसे में कोटवारों का दर्द कौन सुनेगा और अपना दर्द किये बताए ,बड़ी समस्या बनकर कोटवारों के सामने है ।