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घोर अस्वच्छता के मध्य स्वच्छता के दावे ?

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Jan 23, 2020

केंद्र ही नहीं बल्कि राज्य सरकारों द्वारा भी स्वच्छता अभियान को लेकर बड़े बड़े दावे किये जा रहे हैं। जनता के ख़ून पसीने की कमाई का टैक्स का क़ीमती पैसा विकास या स्वच्छता संबंधित कार्यों में कम परन्तु इनके विज्ञापनों में व सरकार की अपनी पीठ थपथपाने में ज़्यादा ख़र्च हो रहा है। देश का विज्ञापन संबंधी कोई भी तंत्र स्वच्छता संबंधित विज्ञापनों से ख़ाली नहीं बचा है। देश के अनेक राज्यों व नगरों ने तो स्वयं ही इस बात का प्रमाणपत्र भी ले लिया है कि उनका राज्य या शहर गंदगी मुक्त हो गया है। कई नगरों व राज्यों का ये भी दावा है कि वे 'खुले में शौच मुक्त' हो चुके हैं। कई राज्यों में इसी स्वच्छता अभियान के तहत कई नए प्रयोग भी किये गए हैं। पूरे देश में जगह जगह कूड़ा डालने हेतु कहीं प्लास्टिक तो कहीं स्टील के कूड़ेदान लगाए गए। यह और बात है कि इनमें से अधिकांश कूड़ेदान या तो कमज़ोर होने की वजह से टूट फूट गए या चोरी हो गए। सैकड़ों करोड़ रुपए तो इस कूड़ेदान की ख़रीद में ही सरकार ने बर्बाद कर दिए।

                                                  हरियाणा जैसे राज्य में घर घर प्लास्टिक के छोटे कूड़ेदान सरकार द्वारा वितरित किये गए। शहरों व क़स्बों में कूड़े उठाने के ठेके दिए गए। कूड़ा उठाने वाला लगभग प्रतिदिन घर घर जाकर सीटियां बजाता और घरों से कूड़े उठाकर ले जाता। फिर एक दो स्थान पर पूरे शहर का कूड़ा इकठ्ठा किया जाता। फिर इन कूड़ों में सूखा व गीला,प्लास्टिक कचरा आदि अलग कर इसका निपटारा करने हेतु भेज दिया जाता। परन्तु गत कई महीनों से सरकार द्वारा वितरित किये गए कूड़ेदान, कूड़े का संग्रह करने वाले कर्मचारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं परन्तु तीन माह से अधिक समय से कूड़ा उठाने कोई व्यक्ति नहीं आ रहा। यह व्यवस्था इसलिए की गयी थी ताकि जनता अपने घरों के आसपास के ख़ाली प्लाटों या चौक चौराहों पर कूड़ा न फेंके। अब जबकि वही कूड़ा उठाने वाला जोकि ठेका प्रणाली पर अपनी सेवाएं दे रहा था,नहीं आ रहा है,ऐसे में जनता के सामने क्या विकल्प है ? कहाँ ले जाए जनता अपने घरों का कूड़ा? यदि सरकार कूड़ा उठाने हेतु अपनाई गयी ठेका प्रणाली को सुचारु नहीं रख सकी तो इसमें जनता का क्या दोष है? आज यदि शहर की हालत देखें तो शायद पहले से भी बदतर हो रही है। जगह जगह कूड़े के ढेर पड़े रहते हैं। नालियां व नाले जाम पड़े रहते हैं। लोगों ने फिर से अपने घरों के ही आसपास कूड़ा फेंकना शुरू कर दिया है। गोया सरकार के स्वच्छता के दावों की पोल अच्छी तरह से खुल चुकी है।

                                                 केवल ठेके पर काम करने वाले ही नहीं बल्कि नियमित सफ़ाई कर्मचारी भी मोहल्लों की नालियों की सफ़ाई सुचारु रूप से नहीं कर रहे हैं। कई कई महीने तक गलियों में नाली की सफ़ाई नहीं हो पाती। अनेक लोगों ने अपने घरों के सामने की नाली की सफ़ाई स्वयं करनी शुरू कर दी है। परन्तु नाली से निकला गया गन्दा कीचड़ उठाने भी कोई नहीं आता। यदि आप इसकी शिकायत दर्ज कराईये तो शायद एक सप्ताह बाद दुबारा याद दिलाने पर कोई कर्मचारी नाली तो साफ़ कर जाएगा परन्तु वह भी निकाला गया नाली का कचरा नाली के बाहर ही ढेर करदेगा। उसे उठाने के लिए आपको पुनः शिकायत दर्ज करवानी पड़ेगी। परन्तु इस बात की कोई गारंटी नहीं कि आपकी दूसरी शिकायत पर कोई कर्मचारी आएगा भी या नहीं। हाँ शिकायत करने पर आने वाला कर्मचारी अपना काम पूरा करने से पहले ही आपसे इस बात के लिए हस्ताक्षर ज़रूर करा लेता है कि आपकी शिकायत का निवारण कर दिया गया है। अब यदि आप इसी सफ़ाई कर्मचारी से यह पूछें कि महीनों से सफ़ाई कर्मी लापता क्यों है तो जवाब मिलेगा की 'अधिकारियों ने बड़े नालों की सफ़ाई के लिए अधिकांश  कर्मचारी तैनात कर दिए हैं'। इसका सीधा सा अर्थ है कि सरकार के पास काम ज़्यादा है जबकि कर्मचारी कम। ऐसे में क्या यह ज़रूरी नहीं कि विज्ञापनों के माध्यम से अपनी पीठ पथपथपाने पर पैसे ख़र्च करने के बजाए कर्मचारियों की भर्ती पर पैसे ख़र्च हों ? क्या यह ज़रूरी नहीं कि बेतहाशा ख़रीद फ़रोख़्त करने व फ़ुज़ूल के निर्माण कार्यों पर पैसे ख़र्च करने की जगह कर्मचारियों की संख्या बढ़ाई जाए?

                                                ठेके पर कूड़ा उठाने की व्यवस्था जनता पर इसलिए और भी भारी पड़ रही है कि हरियाणा सरकार द्वारा अनेक नगरवासियों से 40 रूपये प्रति माह के दर से तीन वर्षों के पैसे यानी 480 रूपये प्रतिवर्ष के हिसाब से 1440 रूपये पेशगी वसूल कर लिए गए हैं। इसके लिए सरकार ने यह नियम बनाया है कि यदि आपको अपने किसी कार्य के लिए नगरपालिका से अनापत्ति प्रमाण पत्र चाहिए तो आपको नगरपालिका के सारे बक़ाया टैक्स व बक़ाया सफ़ाई शुल्क आदि देने होंगे। अब ज़रा सोचिये कि सफ़ाई वाला या कूड़ा उठाने वाला तो आ नहीं रहा है परन्तु आपको उसका शुल्क ज़रूर देना पड़ेगा। अन्यथा अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं मिल सकेगा। सरकार की इस प्रकार की नीतियों से स्पष्ट है कि सरकार का ध्यान जनहित में नहीं बल्कि विज्ञापनों के भ्रमजाल फैलाने में लगा है। सरकार के पास अपने देशवासियों को स्वच्छ वातावरण उपलब्ध करने की क्षमता तो दिखाई नहीं देती परन्तु विदेशियों को नागरिकता देकर वोट की राजनीति करने में अपना पूरा ध्यान ज़रूर लगा रही है। इस समय देश को फ़ुज़ूल की बहसों में बिकाऊ मीडिया ने इतना उलझा दिया है कि न तो कोई सफ़ाई के विषय पर बात हो रही है न ही मंहगाई जैसे जनसरोकार से जुड़े सबसे महत्वपूर्ण विषय पर। पूरे देश को मंदिर,एन आर सी और सी ए ए के खेल में उलझा दिया गया है जबकि पूरे देश में आवारा पशुओं का आतंक फैला हुआ है। रोज़ाना दर्जनों दुर्घटनाएं सड़कों पर घूमते सांड़ों व गायों की वजह से हो रही हैं। गौ माताएं कूड़े के ढेरों की 'शोभा' बढ़ा रही हैं। लगभग हर प्लाट या मैदान गार्बेज डंपिंग ग्राउंड बना पड़ा है जहाँ सांड़ व गायों द्वारा प्लास्टिक का कचरा खाया जा रहा है। परन्तु सरकारों को न कूड़े के रूप में फैली गंदगी से मतलब न ही गौमाता की दुर्दशा से कोई वास्ता,न बीमारी फैलने का कोई भय। बस केवल विज्ञापन या झूठा गऊ प्रेम दिखाकर स्वयं को भारतीय संस्कृति का रखवाला बताना ही इनका उद्देश्य रह गया लगता है। निश्चित रूप से सरकार द्वारा घोर अस्वच्छता के मध्य स्वच्छता के दावे किये जा रहे हैं।

-निर्मल रानी