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अभी-अभी:

"शिक्षक तो क्या हैं... अलादीन का जिन्न हैं"

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Sep 5, 2018

- डॉ आदित्य जैन 'बालकवि'
(राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित)

क्या कहा डॉ राधाकृष्णन का बर्थ-डे... यानि शिक्षकों का दिन हैं। अजी हुजूर.. आपने शिक्षक को शिक्षक कहाँ रहने दिया... वो तो बेचारा अलादीन का जिन्न हैं। कभी चुनाव में घिसता हैं, कभी प्रशिक्षणों में पिसता हैं, कभी जनगणना में भटकता हैं, कभी सर्वे में अटकता हैं... सुना हैं अब तो 'दूध पिलाने' में भी अपना योगदान धर रहा हैं। बेचारा पढ़ा नही पा रहा हैं.. बाकि सब कुछ कर रहा हैं। इसलिए तो शिक्षा विभाग का एवरेज इतना कम आ रहा हैं। आयेगा भी क्यों नहीं... जिसको देश बनाना था.. वो पोषाहार बना रहा हैं। क्योंकि शिक्षक.. शिक्षक नही.. 'मल्टीपिन का चार्जर' हैं, जिसे जब चाहें, जहाँ चाहे.. ठोक देते हैं। पढ़ाने की सारी ऊर्जा 'पकाने' में झोंक देते हैं। ऐसे में विद्यालय तो क्या हैं बस... बनिये की दुकान हैं। नौकरी की बलिवेदी पर शिक्षा कुर्बान हैं।
         

ऐसे में आया हैं तुगलकी फरमान कि सम्मान समारोह में तालियाँ बजाने सभी को आना हैं। अरे भई.. चुनाव का मौसम हैं.. भीड़ भी तो जुटाना हैं। ऊपर से वेतन काटने की धमकी देकर.. अपनी ऊंची नाक कर रहे हैं। ये विभाग चला रहे हैं या मजाक कर रहे हैं। हाँ.. मगर इसका ये मतलब नही हैं.. कि अपने 'गुरूजी' भी दूध के धुले हैं। चिट्ठे तो अभी आधे खुले हैं। सुना हैं आजकल पुरस्कार के मापदंडों में भी शिक्षक खरे नहीं उतर रहे हैं। अहसान मानिए कि ईमानदार हैं... जो 'सेटिंग' नही कर रहे हैं। वरना पुरस्कार तो क्या हैं.. 'सिफारिशों का जुआँ' हैं। कुँए में भांग नही घुली हैं.. ये भांग का ही कुआँ हैं। इनकी तिकड़म के आगे टिक सके.. भला किसकी बिसात हैं। 'बीस' बच्चों की उपस्थिति होने के बाद भी 'सौ' की हाजिरी भरना क्या कम बात हैं। समय के इतने पाबन्द हैं कि स्कूल बन्द होने से पहले तो आ ही जाते हैं। फिर आते ही 'वॉट्सऐप' खोलकर 'गुड मॉर्निंग' के जरूरी आदेश पढ़ने बैठ जाते हैं। क्योंकि... वो भी मन में जानते हैं... कि बला टल रही हैं.. गृहस्थी पल रही हैं। कुल मिलाकर गुरूजी की क्लास 'गोविन्द' भरोसे चल रही हैं।
           

अब ऐसे में भला चाणक्य को कोसें या चंद्रगुप्तों पर दोष मढ़े। रिजल्ट को गड्ढे से निकाले या आंकड़ों की मीनारों पर चढ़े। क्योंकि आसमान छूने की आकांक्षाएं जमीन नापती फिर रही हैं। साक्षरता का ग्राफ तो बढ़ रहा हैं.. मगर शिक्षा अपने स्तर से गिर रही है। जिन पर 'आंखे खोलने' का जिम्मा हैं.. वो आँखे मींचकर पढ़ा रहे हैं। भविष्य का तो पता नही... मगर बेरोजगारों की संख्या जरूर बढ़ा रहे हैं। आखिर हम कब समझेंगे कि शिक्षा केवल औपचारिकता नही... समृद्धि की कुलवधू का गहना हैं.. इसे अव्यवस्थाओं की नगरवधू का लुटा हुआ सिंदूर मत बनाओ। शिक्षक को शिक्षक रहने दो.. मजदूर मत बनाओ। मत डालो भविष्य की नींव में लापरवाही का मट्ठा.. वरना गुस्ताखी की गंगा में, पीढ़ियों की मेहनत बह जायेगी। शिक्षा की कील तो ठुकेगी... मगर भविष्य की दीवार ढह जायेगी।