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'नोटा' खुदा तो नहीं, पर खुदा की कसम खुदा से कम भी नहीं !

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Sep 13, 2018

अनिल सिंह कुशवाह

बीजेपी के 'तब की' सिद्धान्तवादी राजनीति के प्रतीक और जमीनी स्तर पर लोकप्रियता के बड़े 'नायक'नेता दिलीप सिंह जूदेव का 15 साल पहले एक कथित घूसकांड में नाम सामने आने पर उनका एक डायलॉग बड़ा फेमस हुआ था कि 'पैसा ख़ुदा नहीं होता पर ख़ुदा की क़सम खुदा से कम भी नहीं होता।' इसे अगर नोटा के संदर्भ में जोड़े तो कह सकते हैं कि 'नोटा भी खुदा तो नहीं होता, पर खुदा से कम भी नहीं।' ये किसी उम्मीदवार को सीधे तौर पर जिता तो नहीं सकता, पर प्रतिद्वंदी को जीतने से रोक सकता है। या फिर यह कहें कि ये किसी की भी जीत को फीका कर सकता है। 

राजनीतिक दलों के वोट प्रतिशत को कम करता नोटा
सतही तौर पर नोटा को कमजोर या अप्रभावी आंका जा सकता है, पर सच्चाई यह है कि ये राजनीतिक दलों के वोट प्रतिशत को भी कम कर सकता है। कमजोर विपक्ष को तो सरकार बनाने तक से रोक सकता है ? सवाल यह है, क्या हमारे राजनीतिक दल नोटा की ताकत को समझ पाए हैं या फिर नोटा को और मजबूत बनाने की जरूरत है ? सोशल मीडिया पर इन दिनों नोटा (None Of The Above) पर जोर शोर से बहस हो रही है। एसटी-एससी एक्ट से नाराज बहुत सारे लोग नोटा को चुनने की बात कर रहे हैं। अपने गुस्से के उबाल में वे नोटा को विकल्प बता रहे हैं। जबकि, राजनीतिक दलों से जुड़े लोग नोटा को वोट को खराब करने वाला, अर्थहीन और बेकार बता रहे हैं। चुनाव आयोग के निर्देशों से साफ है कि किसी उम्मीदवार को वोट नहीं देने के संदर्भ में नोटा का वही प्रभाव होगा, जो कि नियम ‘49-ओ’ के पूर्ववर्ती प्रावधानों का होता है। ऐसे में अगर नोटा के पक्ष में किसी अन्य उम्मीदवार की तुलना में ज्यादा वोट पड़ते हैं, तो भी सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को ही विजेता माना जाएगा।

नोटा अर्थहीन या बेकार
ऐसे में सवाल उठता है, क्या वाकई नोटा अर्थहीन या बेकार है ? सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर लम्बे संघर्ष के बाद जब नोटा का ऑप्शन 2013 में ईवीएम में जोड़ा गया तो इसकी शुरुआत मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ सहित 5 राज्यों के विधानसभा के चुनावों से ही हुई थी, और पहली बार में ही नोटा ने राजनीतिक दलों को भविष्य के लिए चौंकन्ना कर दिया। मध्य प्रदेश में 25 और छत्तीसगढ़ में 15 विधानसभा क्षेत्र ऐसे रहे, जहां हार-जीत का अंतर नोटा को मिले वोटों से भी कम रहा ?  यदि विपक्ष कमजोर है तो ये नोटा सत्तारूढ़ दल का 'बैकडोर फ्रैंड' भी बन जाता है ? ऐसा मित्र, जो कमजोर विपक्ष को सत्ता में आने से रोक सकता है और 'अप्रत्यक्ष' तौर पर सत्ता के ही उम्मीदवारों को जिताने में मदद करता है। यानी, सत्ता के खिलाफ जो वोट विपक्ष को मिलना चाहिए, वह नोटा ले जाता है। नोटा और सत्तारूढ़ दल की इस 'नूराकुश्ती' को समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। छत्तीसगढ़ का ही उदाहरण ले लें, पड़ोसी राज्य में बीजेपी को पिछले चुनाव में 53.4 लाख वोट मिले, जो कुल वैध मतों का 41.4 प्रतिशत था। जबकि कांग्रेस को 40.29 प्रतिशत यानि 52.44 लाख वोट मिले। यानी, दोनों दलों के बीच का अंतर एक फीसदी से भी कम रहा। लेकिन, नोटा को 3 प्रतिशत वोट मिले। यानी, एंटी इंकम्वेनशी होने के बावजूद बीजेपी को सत्ता से बाहर करने की बजाय ये नोटा उसकी ढाल बन गया ? 

2112 वोटरों ने किया नोटा का इस्तेमाल 
2013 के विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में भी पौने 2 फीसदी मतदाताओं यानी छह लाख बीस हजार ने किसी को भी वोट के योग्‍य नहीं माना। इन मतदाताओं ने सत्ता के खिलाफ अपनी नाराजगी का वोट विपक्ष को देने की बजाय नोटा को दिया। मसलन, ग्‍वालियर-पूर्व विधानसभा सीट से भाजपा सरकार की मंत्री माया सिंह 1147 मतों से जीतीं। वहां 2112 वोटरों ने नोटा का इस्तेमाल किया। यदि, इनमें से आधे वोट भी कांग्रेस उम्‍मीदवार को मिल जाते तो परिणाम बदल जाता। ऐसी ही तस्वीर सुरखी विधानसभा क्षेत्र में दिखाई दी। कांग्रेस के गोविंद सिंह राजपूत 141 वोटों से हारे। जबकि, नोटा बटन दबाने वालों की संख्‍या 1550 थी। कानून की निगाह में भले ही ये अयोग्य मत थे, जिनका कोई मूल्य नहीं है। चुनाव में हार जीत का फैसला योग्य वोटों के आधार पर ही होता है। चाहे उम्मीदवार को सिर्फ एक वोट ही क्यों न मिला हो। यहां तक कि उम्मीदवारों की जमानत जब्त करने के लिए भी नोटा वोटों को नहीं माना जाता। फिर भी अघोषित तौर पर ये मतदाताओं के लिए एक बड़ी ताकत है।  जाहिर है, हमारे पास 3 विकल्प होते हैं। पहला यह कि उनमें से सबसे कम बुरे को चुनें, दूसरा यह कि हम नोटा का इस्तेमाल करते हुए सभी प्रत्याशियों को नकार दें और अंतिम यह कि हम वोट ही डालने न जाएं। ऐसे में, नोटा तीसरे विकल्प की कमी को पूरा कर सकता है। अगर हम वोट डालने नहीं जाएंगे, तो हो सकता है हमारा वोट कोई और डाल जाए ? 

तिकड़मी राजनीतिक दलों को करारा सबक है नोटा
नोटा का बढ़ता प्रभाव उन 'तिकड़मी' राजनीतिक दलों को करारा सबक और जवाब हो सकता है, जो अपने वोट प्रतिशत बढ़ने के दावे कर इतराते हैं। ये तिकड़म से चुनाव तो जीतेंगे, पर ये जीत फीकी रहेगी। वोट प्रतिशत के कारण ही चुनाव आयोग से राजनीतिक दलों को क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मान्यता मिलती है। नोटा भले ही चुनाव रद्द करने की ताकत नहीं रखता हो, पर ये दावे जरूर प्रभावित कर सकता है ? 

नोटा का बटन दबाने से भ्रष्ट नेताओं को मिलेगा सबक
कायदे से हर चुनाव के पहले नोटा का खूब प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए कि अगर कोई दल सही उम्मीदवार न दे तो आप वोट न करें, नोटा दबाएं। नोटा का बटन दबाने से भ्रष्ट नेताओं को सबक मिलेगा। राजनीति के अपराधीकरण को रोकने और जनता के गुस्से को व्यक्त करने के लिए नोटा महत्वपूर्ण रोल प्ले कर सकता है। अब सवाल यह है, नोटा की हैसियत तो बढ़ रही पर अधिकार कब बढ़ेंगे ? नोटा का बड़ा असर तभी सामने आएगा, जब विधानसभा और लोकसभा चुनावों के 6-7 दौर हो चुके होंगे। जैसे-जैसे नोटा मतों की संख्या बढ़ती जाएगी, वैसे ही राजनीतिक दलों पर दबाव बनेगा कि वे अच्छे उम्मीदवार मैदान में उतारें। 

नोटा को मजबूत करने की उठी मांग
वैसे, नोटा को मजबूत करने की मांग उठने लगी है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने उन निर्वाचन क्षेत्रों में फिर से चुनाव कराने की वकालत की है, जहां जीत का अंतर नोटा मत संख्या की तुलना में कम रही और विजयी उम्मीदवार एक तिहाई मत जुटाने में भी नाकाम रहे। इसको लेकर पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की गई थी। तीन सदस्यीय पीठ ने फिलहाल तो यह कहकर इसे अव्यवहारिक करार दिया है कि 'हम इस तरह हमारे लोकतंत्र की हत्या नहीं कर सकते क्योंकि हमारे देश में चुनाव कराना एक बहुत जटिल और खर्चीला काम है। लेकिन, यह अंतिम फैसला नहीं है। कई बार सुप्रीम कोर्ट ने मजबूत दलील सामने आने पर अपने पुराने फैसले बदले भी हैं। इसलिए नोटा को कमतर नहीं आंका जा सकता। जनता के इस हथियार से सभी राजनीतिक दलों को सावधान रहने की जरूरत है। न जाने कब इसे मजबूत करने की मांग पुरजोर तरीके से उठ जाए। इसका प्रभाव बढ़ने पर यह स्वाभाविक तौर पर फिर अपना अगला चरण तलाशेगा। ये अगला चरण 'राइट टू रिजेक्ट' और 'राइट टू रिकॉल' भी हो सकता है ?