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अभी-अभी:

धर्म की कम देश की अधिक चिंता करने का समय

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Dec 16, 2019

 नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा संसद के दोनों सदनों में  पारित करवाया जा चुका नागरिकता संशोधन विधेयक अब क़ानून का रूप लेने जा रहा है। इस नव संशोधित नागरिकता क़ानून के दोनों सदनों यानी लोकसभा व राज्य सभा में पेश होने के दौरान ही देश के कई राज्यों में इस विधेयक का बड़े पैमाने पर विरोध शुरू हुआ था जो अब भी जारी है।असम व बंगाल में तो इस आंदोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया है। इससे पहले राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर लागू करने के प्रयासों के दौरान भी असमवासियों  में काफ़ी बेचैनी दिखाई दी थी।  मोदी सरकार द्वारा लाया जाने वाला नागरिकता संशोधन क़ानून हो या राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर इन दोनों ही प्रयासों से स्पष्ट हो गया है कि यह सरकार भारतवासियों अथवा मानवता के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि धर्म के नज़रिये से अपना सत्ता सञ्चालन कर रही है। हालांकि सरकार  द्वारा समय समय पर  संविधान की रक्षा की दुहाई भी दी जाती है। परन्तु उसके द्वारा बहुमत की आड़ में उठाए जाने वाले कई क़दम ऐसे प्रतीत होते हैं गोया मोदी सरकार संविधान विरोधी कार्य कर रही हो। भारतीय संविधान की उद्देशिका के रूप में संविधान के शुरूआती प्रथम पृष्ठ पर मोटे शब्दों में अंकित है-"हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न,समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय,विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख़ 26 नवंबर 1949 ईस्वी(मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी संवत दो हज़ार छः विक्रमी ) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत,अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।" इस प्रस्तावना में किसी धर्म जाति या क्षेत्र अथवा भाषा का ज़िक्र करने के बजाए 'हम भारत के लोग' और 'उसके समस्त नागरिकों' जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है तथा धर्म,जाति व क्षेत्र आदि के भेद भाव के बिना समस्त भारतवासियों को साथ लेकर राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने का दृढ़ संकल्प व्यक्त किया गया है।

                                   क्या मोदी सरकार संविधान की इस प्रस्तावना का अनुपालन कर पा रही है ? नागरिकता संशोधन क़ानून और  राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार करने जैसी कोशिशें क्या भारतीय संविधान की मूल आत्मा अर्थात पंथ निरपेक्षता का पालन करती हैं? आख़िर क्या वजह है कि देश के कई राज्यों में इस समय बेचैनी दिखाई दे रही है। क्या बहुमत का अर्थ यह है कि सरकार अपने पूर्वाग्रही,गुप्त व साम्प्रदायिक एजेंडे को लागू करते हुए पंथ निरपेक्ष होने के बजाए बहुसंख्यवाद की राजनीति कर अपनी सत्ता सुरक्षित रखने की कोशिश करे?आख़िर सरकार द्वारा किस आधार पर अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के केवल हिंदू, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध और पारसी धर्म के लोगों को ही नए नागरिकता क़ानून के तहत भारत की नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है? इसमें मुसलमानों को शामिल क्यों नहीं किया गया ? हालाँकि इस विषय पर संसद में चली बहस के दौरान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का कहना था कि "भारत के तीनों पड़ोसी धर्मशासित देशों में अल्पसंख्यकों का लगातार मज़हबी उत्पीड़न हुआ है, जिसकी वजह से उन्हें भारत में शरण लेनी पड़ी है. छह अल्पसंख्यक समूहों को नागरिकता का अधिकार देने का फ़ैसला सर्व धर्म समभाव की भावना के अनुरूप है." गृह मंत्री अमित शाह ने भी चर्चा के दौरान फ़रमाया कि -'पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में इस्लाम को मानने वाले अल्पसंख्यक हैं क्या? देश का धर्म इस्लाम हो तो मुस्लिमों पर अत्याचार की संभावना कम है' उन्होंने कहा कि मुसलमानों के आने से ही क्या धर्मनिरपेक्षता साबित होगी?

                                देश व देश के  स्वयंभू रखवालों से कोई पूछे कि इन तीनों ही देशों में आज तक सबसे अधिक प्रताड़ना किन लोगों को सहनी पड़ी है ? अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश तीनों ही देशों में कट्टरपंथी ताक़तें चाहे वे सत्ता द्वारा संरक्षित हों या सत्ता विरोधी परन्तु इन अतिवादी ताक़तों द्वारा सबसे अधिक प्रताड़ित उन लोगों को ही किया जाता है जो वैचारिक रूप से इनसे सहमत न हों। इनमें मुसलमानों में ही गिने जाने वाले शिया,बरेलवी,अहमदिया,सूफ़ी जैसे समुदाय के लोग सबसे बड़ी संख्या में शामिल हैं। इन  समुदायों के लोग मुसलमान हैं भी और ज़ाहिर है स्वयं को मुसलमान ही कहते भी हैं। परन्तु आतंक का पर्याय बनी कट्टर मुस्लिम शक्तियां इन्हें मुसलमान नहीं मानतीं। विचारधारा के इस टकराव में निश्चित रूप से सबसे अधिक उत्पीड़न इन तीनों देशों में इन्हीं मुसलमानों का किया जाता है। शिया,बरेलवी,अहमदिया,सूफ़ीआदि समुदाय के लोगों के धर्मस्थलों,मस्जिदों,दरगाहों,इमामबारगाहों को ध्वस्त किया जाता है। मुहर्रम के जुलूसों व मजलिसों पर आत्मघाती हमले किये जाते हैं।कई दरगाहों में उर्स जैसे बड़े समागमों यहाँ तक कि शादी समारोह तक में आतंकी आत्मघाती हमले करे गए जिसमें अब तक हज़ारों मुसलमान मारे जा चुके हैं।क्या इन पीड़ितों को भारत में नागरिकता लेने का अधिकार नहीं? और यह हालात गृह मंत्री अमित शाह के इस दावे कि 'देश का धर्म इस्लाम हो तो मुस्लिमों पर अत्याचार की संभावना कम है'की कहाँ तक पुष्टि करते हैं ?

                                अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेशको छोड़ कर यदि हम श्री लंका,चीन,नेपाल,तिब्बत और म्यांमार जैसे देशों की बात करें तो यहाँ भी मुसलमानों के साथ साथ अन्य धर्मावलंबी भी धर्म के आधार पर उत्पीड़न का शिकार होते रहते हैं। उदाहरण स्वरूप तिब्बत के बौद्ध, श्रीलंका के तमिल, नेपाल के मधेसी,म्यांमार में रोहंगिया मुस्लिम,चिन, काचिन व अराकान समुदाय के लोग भी ज़ुल्म का शिकार होते रहते हैं परन्तु उन्हें भारत की नागरिकता दिए जाने वाले धर्मों की सूची में शामिल नहीं किया गया है ? क्या भारतीय संविधान इसी प्रकार के धार्मिक भेदभाव करने की शिक्षा देता है? क्या देश की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वालों ने ऐसे ही स्वतंत्र भारत की कल्पना की थी जो धर्म के आधार पर क़ानून बनाया करेगा? वर्तमान भाजपा सरकार दरअसल मुस्लिम विरोध पर आधारित राजनीति में ही अपनी सफलता देखती आ रही है। 2014 से लेकर अब तक मोदी सरकार तथा कई भाजपा शासित राज्य सरकारों ने ऐसे अनेक फ़ैसले लिए हैं जो भाजपा के मुस्लिम विरोधी रुख़ को दर्शाते हैं। जिस पंथ निरपेक्षता की बात भारतीय संविधान में की गयी है भाजपा उसपर विश्वास करने के बजाए हिंदूवादी राजनीति पर अधिक विश्वास करती है। और जो भी दल या नेता मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों की बात करता है उसे हिन्दू विरोधी साबित करने की चतुराई करती है। विपक्ष को मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाला बताकर स्वयं हिन्दू वोट बैंक की राजनीति करती है।

                                  उपरोक्त परिस्थितियों में देश व संविधान की मूल आत्मा को बचाने की ज़िम्मेदारी निश्चित रूप से समूचे विपक्ष के साथ साथ पूरे देश की जनता की भी है। भाजपा के रणनीतिकारों ने बड़े ही शातिराना तरीक़े से नवनिर्मित नागरिकता संशोधन क़ानून तथा  राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर जैसे अति गंभीर विषयों पर विपक्ष को भी विभाजित करने की कोशिश की है।ऐसे में जो भी विपक्षी दल व नेता भारतीय संविधान व देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के पैरोकार हैं उन्हें बिना समय गंवाए ऐसे काले क़ानूनों के विरुद्ध एकजुट हो जाना चाहिए। यह वक़्त देश की आत्मा के लिए संकट का समय है। यह समय धर्म से भी अधिक देश की चिंता करने का समय 

- तनवीर जाफ़री