Loading...
अभी-अभी:

ग्वालियर : गंगादास की बडीशाला जहां साधू संतों ने लिया अंग्रेजों से लोहा, वहां आज भी होती है उनके हथियारों की पूजा...

image

Oct 8, 2019

विनोद शर्मा : विजयी दशमी के मौके पर वैसे तो समूचे देश में अस्त्र-शस्त्र से लेकर कलपुर्जों की पूजा की जाती है लेकिन आज हम आपको ग्वालियर की एक ऐसी पूजा दिखाने जा रहे हैं जिसकी पूजा कोई आम आदमी नहीं बल्कि साधू संत करते है और वो भी हथियारों कि, यह हथियार कोई साधारण हथियार नहीं है बल्कि उनका इतिहास में खासा महत्व है। क्या है ये खास पूजा आप खुद ही देखिए।

साधू संतों ने लिया अंग्रेजों से लोहा..
बता दें कि तोप के मुहाने से निकलते इस गोले को देखिए शायद आपको पुराना वो जमाना याद आ जाए जब तोप और तलवारों से ही लड़ाई जीती जाती है लेकिन आज शायद ही किसी को निजी तौर पर तोप देखने को मिले। लेकिन हम आप को बताते है कि यह तोप पूरी तरह से निजी है और इसका मालिक कोई और नहीं बल्कि एक मंदिर के साधू संत हैं। आप सोच रहे होंगे की साधुओ को तोप की क्या जरूरत है, तो पहले हम इस स्थान के बारे में आपको बता दें कि दरअसल में यह स्थान है ग्वालियर की लक्ष्मीबाई कॉलोनी में बना गंगादास की बडीशाला जिसका इतिहास में अपना अलग ही महत्व है।

लक्ष्मीबाई ने अपने प्राणों को किया न्यौछावर
यह वही स्थान है जहां सन 1857 में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजो से लड़ते लड़ते अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया था। दरअसल में जब रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजो से लड़ते लड़ते ग्वालियर तक आईं और जब उन्हें अंग्रेजो ने चारों तरफ से घेर लिया तो रानी ने यहां पर रहने वाले गंगादास महाराज से मदद मांगी जिसपर गंगादास संत ने अपने साधुओं के साथ रानी की रक्षा के लिए अंग्रेजो से लोहा लिया। साधुओं के युद्ध कौशल को देखकर अंग्रेज भाग खड़े हुए। हालांकि इस लड़ाई में जहां रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं वहीं इस स्थान के 745 साधू भी शहीद हो गए थे। लेकिन जिन अस्त्र शस्त्रों से साधुओ ने अंग्रेजो से लोहा लिया था वो आज भी यहां रखे हुए हैं जिनकी विजयदशमी के दिन पूजा की जाती है।

शहीद साधुओं की समाधि की होती है पूजा...
सबसे पहले सुबह के वक्त सभी शहीद साधुओं की समाधी स्थान की पूजा की जाती है उसके बाद मंत्रोच्चार के साथ हवन में आहु​ति दी जाती है इसके बाद पूजा का सिलसिला शुरु होता है जो कई घंटो तक चलता है खास बात यह है, इस आश्रम में आज भी सन 1857कीतलवार,तेगा,फरसा,वर्छी,भाला और वो सभी हथियार मौजूद है जिनसे उस दौर में युद्द लड़ा जाता था।

इसी आश्रम में रानी लक्ष्मीबाई का हुआ था अंतिम संस्कार
इसी आश्रम में रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार किया गया था और आज उसी स्थान पर रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा स्थापित है। ये बात अलग है कि रियासत कालीन समय में अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले साधुओं की सियासत काल में कोई सुध लेने वाला नहीं है।