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जातीय संघर्ष: इस नई चुनौती से कैसे निपटेंगे शिवराज ? 

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Sep 5, 2018

अनिल सिंह कुशवाह  : हर राजनीतिक दल का एक निश्चित वोट होता है जो उसी दल को जाता है। लेकिन, हार जीत तय करने वाला वोट तटस्थ नहीं होता है। वह हमेशा परिवर्तित होता है, वह पोलिंग बूथ पर चल रही हवा के साथ चलता है। जो केवल 4 से 7 फीसदी होता है। सवाल यह है, क्या ये वोट मध्यप्रदेश में एंटी इंकम्वेनशी या एसटी-एससी एक्ट जैसे किसी फैसले से प्रभावित हो रहा है ? 
ये वोट ग्रामीण क्षेत्र, वर्ग या फिर संप्रदाय विशेष से होता है। तमाम बुद्धिजीवी भले ही किसी भी दल की जीत की संभावना व्यक्त कर रहे हों, लेकिन सच यह है हमारा वोट निर्णायक नहीं होता है। परिवर्तन वाला वोट ही निर्णायक होता है ? 


केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए जिस तरह एसटी-एससी एक्ट को लागू किया, उससे देशभर में तीखी प्रतिक्रिया सामने आ रही है, विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। इस उबाल के पीछे कोई बड़ा नेता या नेतृत्व भी नहीं है। यानी गुस्से का उबाल, नेतृत्व विहीन है। ठीक उसी तरह, जैसा 1990 में केंद्र की तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने जब 'मण्डल कमीशन' लागू किया था। फिर उसके परिणाम भी सामने थे ? 
जातीय संघर्ष को अब एक बार फिर हवा मिल रही है। बिहार और यूपी समेत तमाम राज्यों की तरह मध्यप्रदेश में भी इस विरोध ने तेजी से पैर पसारने शुरू कर दिए हैं। रतलाम के एक गांव में तो लोगों ने गांव के प्रवेश द्वार पर बोर्ड लगा दिया है कि 'ये गांव सवर्णों का है' अतः कोई भी नेता उनके गांव में वोट मांगने नहीं आए ? इनका सवाल है, जब लोकसभा में ये अध्यादेश लाया जा रहा था तो उनका जनप्रतिनिधि चुप क्यों रहा ? ग्वालियर, खरगौन, मंदसौर और नीमच में भी इसी तरह के पोस्टर कई घरों के बाहर गेट पर लगा दिए गए हैं। मुरैना में बीजेपी के राज्यसभा सांसद प्रभात झा और मंत्री रुस्तम सिंह को लोगों ने घेर लिया, चूड़ियां भेंट की और काले झंडे दिखाए। ऐसे ही विरोध का सामना नौकरशाह से सांसद बने डॉ. भगीरथ प्रसाद को भी अपने संसदीय क्षेत्र भिंड में करना पड़ रहा है। भारी विरोध के कारण अशोक नगर के बीजेपी विधायक और दलित नेता गोपीलाल जाटव को यह बयान तक देना पड़ गया है कि वह सवर्णों की मांग के साथ हैं। मंदसौर के सांसद सुधीर गुप्ता से भी पूछा जा रहा है कि वह लोकसभा में इस मुद्दे पर चुप क्यों रहे ? 


सवर्णों की नाराजगी का राजनीतिक लाभ किसी को मिले या न मिले, लेकिन बीजेपी को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है ? इस एक्ट के पारित हो जाने के बाद देश में जातीय संघर्ष की आशंकाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। सोशल मीडिया पर जिस तरह के भड़काऊ लेकिन अकाट्य तर्कों वाले मैसेज वायरल हो रहे हैं, उनसे जातीय संघर्ष की पृष्ठभूमि बनते हुए स्पष्ट दिखाई दे रही है ?
एसटी-एससी एक्ट सबसे पहले 11 सितम्बर 1989 को संसद में तब पारित हुआ था, जब केन्द्र में राजीव गांधी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार थी। जम्मू कश्मीर को छोड़कर इसे पूरे देश में लागू किया गया। उसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के समय 30 जनवरी 1990 को इसे और सख्त बनाकर पूरे देश में लागू कर दिया गया। यहां समझना यह है कि डॉ.भीमराव अम्बेडकर से बड़ा न तो कोई दलितों का नेता हुआ है और न ही शुभचिंतक। उन्होंने दलितों की लड़ाई को जमीनी स्तर पर लड़ा था। उन्हें देश के दलित वर्ग की परिस्थितियों का भलीभांति ज्ञान था। उसके बाद वही डॉ.अम्बेडकर संविधान सभा के अध्यक्ष बनाए गए। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए संविधान में वे सभी प्राविधान रखवाए, जो आवश्यक थे। आखिर तब उन्होंने इस तरह के किसी कानून की आवश्यकता क्यों नहीं महसूस की थी ? जैसी सन 1989 में कांग्रेस ने महसूस की और अब भाजपा भी वही महसूस कर रही है। 


इससे तो यही सिद्ध होता है कि देश के सभी राजनीतिक दल जातीयता के सहारे ही सत्ता सुख प्राप्त करना चाहते हैं। इससे इतर वे न कुछ करना चाहते हैं और न कुछ सोचना चाहते हैं।
2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद देश को यह लगा था कि शायद अब भारत की राजनीति में एक नया युग प्रारम्भ होगा। देश जातिवाद से ऊपर उठकर विकास के मार्ग पर आगे बढ़ेगा। सवर्णों ने तो आरक्षण जैसी कलुषित व्यवस्था से भी छुटकारा मिलने के सपने देखना शुरू कर दिए थे। 


ऐसा नहीं है कि देश का दलित समाज इस सबके राजनीतिक निहितार्थ न समझ रहा हो। उसे भी प्रत्येक वस्तुस्थिति का भलीभांति ज्ञान हो चुका है। इसके बाद भी यदि सरकार को यह लगता है कि देश का दलित वर्ग 18वीं शताब्दी की तरह सवर्णों द्वारा अभी भी सताया जा रहा है, तो उसे अब समाज का मानसिक और कानूनी बटवारा करने के साथ-साथ भौतिक बटवारा भी कर देना चाहिए।
समाज को तोड़कर राजनीति करना सामाजिक अपराध है। जातिवादी व साम्प्रदायिक राजनीति से देश कमजोर होता है और असामाजिक तत्वों को फूलने फलने व पैर फैलाने का अवसर भी मिलता है। 
खैर, मध्यप्रदेश में इसको लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया सामने आ रहीं हैं, उसे हल्के ढंग से नहीं लिया जा सकता। वह भी तब, जब मध्यप्रदेश में महज 3 महीने बाद विधानसभा के चुनाव होने हैं। 'प्रमोशन में आरक्षण' के मुद्दे पर शिवराज सरकार के रुख और 'माई के लाल' जैसी चुनौती से सवर्ण पहले से ही गुस्से में भरे हुए हैं। ऐसे में बीजेपी और कांग्रेस, दोनों दलों से खफा ये वोटर फिलहाल 'नोटा' को चुनने की बात कर रहे हैं, लेकिन सत्ता के विरोध में मजबूती से खड़े किसी उम्मीदवार की छाप उसे कब प्रभावित कर दे, यह भी अभी नहीं कहा जा सकता ? 
मध्यप्रदेश के जातीय समीकरण को एक बार नए गणित से भी समझ लेते हैं। प्रदेश में सामान्य वर्ग के वोट करीब 23 प्रतिशत हैं, जबकि पिछड़ा वर्ग 33.34 प्रतिशत हैं। दोनों को मिला दें तो यह वोट 56.34 प्रतिशत होता है, जो अनुसूचित जाति के 15.6 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के 21.08 प्रतिशत वोटों के मुकाबले करीब 20 फीसदी ज्यादा हैं। विंध्य, महाकौशल, चंबल और मध्य क्षेत्र की 72 सीटें ऐसी हैं, जहां सवर्ण सीधा असर डालते हैं। 


एसटी-एससी के कुल 36.14 प्रतिशत वोटों में 6 से 7 फीसदी वोट ऐसे हैं, जो बहनजी यानी मायावती की बसपा को जाते ही जाते हैं। यानी ये वोट फिक्स हैं। सवाल यह है, क्या सवर्णों को नाराज कर बीजेपी 'माया' के इस वोट बैंक में सेंध लगाने की स्थिति में है ?  2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी 44.85 फीसदी वोट लेकर लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटी थी। जो कांग्रेस को मिले 36.38 प्रतिशत वोटों से 8.47 प्रतिशत ज्यादा थे। लेकिन, इसमें 4 से 7 फीसदी वोट वह था, जो पोलिंग बूथ पर चल रही हवा के साथ चलता है ? इसी वोट के रूख को समझना जरूरी है !