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अपने परिजनों से दूर बेहद दयनीय हालत में मजदूर जीने को होते हैं मजबूर

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Apr 30, 2020

नई दिल्लीः किसी भी देश के विकास में मजदूरों की सबसे बड़ी भूमिका है। ये मजदूर ही हैं, जिनके खून-पसीने से विकास की प्रतीक गगनचुंबी इमारतों की तामीर होती है। ये मजदूर ही हैं, जो खेतों में काम करने से लेकर किसी आलीशान इमारत को चमकाने का काम करते हैं। इस सबके बावजूद सरकार और प्रशासन से लेकर समाज तक इनके बारे में नहीं सोचता। बजट में भी सबसे ज्यादा इन्हीं की अनदेखी की जाती है। सियासी दल भी चुनाव के वक्त तो बड़े-बड़े वादे कर लेते हैं, लेकिन सत्ता में आते ही सब भूल जाते हैं। रोजगार की कमी की वजह से लोगों को अपने पुश्तैनी गांव-कस्बे छोड़कर दूर-दराज के इलाकों में जाना पड़ता है। अपने परिजनों से दूर ये मजदूर बेहद दयनीय हालत में जीने को मजबूर हैं। अंतरराष्‍ट्रीय मजदूर दिवस की शुरुआत 1 मई 1886 से हुई। इस दिवस को मनाने के पीछे उन मजदूर यूनियनों की हड़ताल है जो कि आठ घंटे से ज्यादा काम ना कराने के लिए की गई थी। इसे मनाने की शुरुआत शिकागो में ही 1886 से की गई थी। भारत में मजदूर दिवस सबसे पहले चेन्नई में 1 मई 1923 को मनाना शुरू किया गया था। इस दिन देश के अस्सी देशों में छुट्टी रहती है।

मजदूरों के साथ अन्याय और उनका शोषण आज भी

आज भी कई शहरों मजदूरों के साथ अन्याय और उनका शोषण होता है। देश में अधिकतर प्राइवेट कंपनियां या फैक्टरियां अब भी अपने यहां काम करने वालों से 12 घंटे तक काम कराते हैं, जो कि एक प्रकार से मजदूरों का शोषण है। आज जरूरत है कि सरकार को इस दिशा में एक प्रभावी कानून बनाना चाहिए ताकि उसका सख्ती से पालन हो सके। भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों में शोषण और अन्याय के विरुद्ध अनुच्छेद 23 और 24 को रखा गया है। अनुच्छेद 23 खतरनाक उद्योगों में बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है। संविधान के अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 साल के कम उम्र का कोई भी बच्चा किसी फैक्टरी या खदान में काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया जाएगा और न ही किसी अन्य खतरनाक नियोजन में नियुक्त किया जाएगा।