Dec 26, 2018
संजय पी.लोढ़ा - 26 दिसंबर को उस मसीहा को याद करने का दिन है जिसने गरीब आदिवासियों उपेक्षित वर्ग उत्थान के लिए अपने घर वालों तक को छोड़ दिया था। इस दौरान बामनिया स्थित उनके भील आश्रम व समाधि स्थल पर अंचल सहित समीपवर्ती राजस्थान व गुजरात के राज्यों से आस्था से हजारों अनुयायी शीश नवाने बड़ी संख्या पहुंचेंगे आस्था भी ऐसी कि कभी उनके अनुयायियों को न तो तिथि याद दिलाने की जरूरत पड़ती है और ना ही बुलावा देना पड़ता है बस पुण्यितिथि के एक दिन पहले ही आश्रम पर कतार लगना शुरू हो जाती है।
हजारों अनुयायी ने की समाधि पर श्रद्धाजंली अर्पित
26 दिसंबर 1998 को मामाजी का देंहात हुआ मामजी के अवसान के 19 वर्ष बाद भी उनकी कुटिया और भील आश्रम उपेक्षित है उनकी पुण्यतिथि पर प्रतिवर्ष हजारों अनुयायी समाधि पर श्रद्धाजंली अर्पित करने आते हैं सोमवार को मामाजी की 18वीं पुण्यतिथि है हर वर्ष मामाजी की बरसी पर राजनेताओं द्वारा कुटिया-आश्रम आदि के संरक्षण के वादे और दावे किए जाते है लेकिन आज तक इन पर अमल नहीं हो सका।
नहीं हैं अनुयायीयों के लिए भोजन-पानी की व्यवस्था
इसे उपेक्षा ही कहे या विडंबना कि यहां आने वाले हजारों श्रद्धालुओं के लिए न तो समाजवादी पार्टी और न ही शासन-प्रशासन या किसी जनप्रतिनिधियों द्वारा खाने-पीने की कोई व्यवस्था नहीं की जाती है हर वर्ष पुण्यतिथि पर हजारों लोग जुटते है और वे बुखे-प्यासे ही रहते हैं मामाजी की हर पुण्यतिथि पर चढ़ावे के रूप में मोटी रकम हर वर्ष यहां आती है, बावजूद इसके न तो यहां आने वाले अनुयायीयों के लिए खाने-पीने की कोई व्यवस्था की जाती है और न ही मामाजी की कुटिया को संरक्षण मिल पाया है हर वर्ष चढ़ावे की रूप में आने वाली राशि का आखिर होता क्या है, यह एक बड़ा सवाल है? उल्लेखनीय है कुछ वर्षों पहले आने वाले श्रद्धालुओं के लिए यहां बकायादा भोजन की व्यवस्था की जाती थी।
1937 में की थी भील आश्रम की स्थापना
मामाजी ने सन 1937 में बामनिया में डूंगर विद्यापीठ भील आश्रम की स्थापना की थी उस समय बामनिया होलकर राज्य जिला महिदपुर के अंर्तगत आता था झाबुआ राज्य बेगार प्रथा थी बेगार अर्थात राजशाही द्वारा मजदूरी के स्थान पर दोनों समय केवल भोजन था उस समय मामजी ने राजा को प्रभावित कर क्रास धारण करने वालों को भी बेगार प्रथा से मुक्त करवाया था।
उपेक्षित है भील आश्रम और कुटिया
मामाजी आदिवासी वर्ग के मसीहा रहें उन्होंने आदिवासियों के लिए घरवालों को छोड़ दिया जीवनभर समाज के उपेक्षित, गरीब वर्ग आदिवासियो के उत्थान के लिए न केवल संघर्ष बल्कि उनके बीच रहकर उन्ही की तरह जीवन-यापन किया और अपने जीवन के अंतिम क्षण एक कुटिया मे बिताए यह कुटिया आज भी यह बताती है कि मामाजी ने अपनी कथनी व करनी मे कोई अंतर नहीं किया आज यह भील आश्रम व मामाजी की कुटिया पुरी तरह उपेक्षित है।